मास्टर सतबीर सिंह

आज की पीढ़ी को पंडित लख्मीचंद को देखना नसीब नहीं हुआ क्योंकि वह बहुत पहले अपना सबकुछ आने वाली पीढियों को समर्पित करके जा चुके हैं लेकिन पुरानी के साथ आज की पीढ़ी पंडित लख्मीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, धनपत आदि लोक कलाकारों, गायकों से भली भांति परिचित है जिसका श्रेय उनके बाद के गायकों को ही जाता है। इन गायकों में सर्वोपरि और श्रेष्ठ यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वो नाम है मास्टर सतबीर का। इसका एक कारण उनकी साफ-सुथरी छवि और सिद्धांतो से समझौता न करने का दृढ़निश्चय भी है। अपने जीवनकाल में मास्टर सतबीर ने देश-प्रदेश में अनेक मंचों पर अपनी गायन कला का जोहर दिखाया। वे एकमात्र ऐसे कलाकार माने जाते हैं जिन्होंनें पंडित लख्मीचंद द्वारा बनाई गई देसी धुनों की विरासत को बचाये रखा। समय के साथ बहुत सारे लोक कलाकार नई चाल ढाल में ढलकर अपनी विरासत को भूल गये और फिल्मी धुनों की पूंछ पकड़ कर गाने लगे लेकिन मास्टर जी ने हमेशा अपने रंग को बचाये रखा। उनकी एक खासियत यह भी मानी जाती है कि उन्होंनें कभी भी मंच पर गंदा गाना नहीं गाया यह विशेषता उन्हें बाकियों से अलग करती है। असल में मास्टर जी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती वे पंडित लख्मीचंद और मांगेराम की धुनों को अपने में संजोने वाली धरोहर थे।

13 अप्रैल 1951 में भैंसवाल कलां में हुआ जन्म
सोनीपत जिले के गोहाना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले गांव भैंसवाल कलां में 13 अप्रैल 1951 को मास्टर सतबीर का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। स्नातक पास कर ये बतौर शारीरिक शिक्षा अध्यापक जौली गांव में नियुक्त हुए इसके बाद रभड़ा और रिवाड़ा आदि गांवों में भी बतौर शिक्षक अपनी सेवाएं दी 2009 में ये सेवानिवृत हुए। भले मास्टर जी पेशे से अध्यापक रहे हों लेकिन उनका मुख्य शौक रागनी गायन में था जो कि हरियाणा की लोक संस्कृति की एक विशेष पहचान मानी जाती है। रागनी गायन बहुत ही मुश्किल माना जाता है विशेषकर लोक धुनों में रागनी गायन करना। पंडित लख्मीचंद को उनके जाने के बाद जन-जन तक उनकी रागनियों को पंहुचाने और लोगों की जुबान पर लाने में मास्टर जी का अहम योगदान माना जाता है।
1971 से किया था गाना शुरु
परिजनों के अनुसार मास्टर सतबीर पंडित लख्मीचंद से प्रेरित होकर 1971 से रागनी गाने लगे थे और बिमारी के समय में भी चारपाई पर लेटे-लेटे ही गुनगुनाते रहते। कभी कभी वे हरियाणवी संस्कृति खासकर रागनियों में जो फूहड़ता आयी है उस पर भी अपनी चिंता जाहिर करते कभी-कभी वे सरकार से भी हरियाणवी संस्कृति को बढ़ावा देने की अपेक्षा करते फिर सरकार की उपेक्षा से दुखी भी महसूस करते। जानकार बताते हैं कि 2012 में जींद जिले के पड़ाना गांव में हुए कार्यक्रम के बाद उन्हें फिर कभी मंच पर नहीं देखा गया। सरकार ने भले ही उनकी कद्र ना की हो लेकिन लोगों ने उन्हें सर आंखों पर बैठाया। उनके अंतिम संस्कार पर उमड़ा जन सैलाब और सोशल मीडिया में आभासी श्रद्धांजलियों से लोगों के दिल में उन्होंनें कितनी जगह बनाई इसका पता चलता है।
तीन महीने से डायलेसिस से थे पीड़ित
66 वर्षीय मास्टर सतबीर शुगर के मरीज तो थे ही पिछले तीन महीने से डायलेसिस ने भी उन्हें घेर लिया। हालांकि रोहतक के एक निजी अस्पताल में उनका ईलाज भी चल रहा था लेकिन कोई लाभ नहीं पंहुचा और गुरु पूर्णिमा से ठीक एक दिन पहले मास्टर जी अपनी यादों को हमारे बीच छोड़ गये।
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